
श्रावण मास की तपती दोपहर में, कांवड़िए कंधों पर गंगाजल उठाए, पैरों में छालों के बावजूद, सिर्फ एक ही लक्ष्य लिए आगे बढ़ते हैं—भोलेनाथ का दरबार। लेकिन अब ये यात्रा सिर्फ आस्था और भक्ति तक सीमित नहीं रह गई है। कांवड़ियों को ट्रोलिंग, तानों, सवालों और सामाजिक जिम्मेदारियों की कसौटी पर भी परखा जाने लगा है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आस्था के इस सफर को तय कर रहे कांवड़िए इन चुनौतियों को कैसे देखते हैं और उनका सामना कैसे करते हैं।
भक्ति की तपन, पर ट्रोलिंग की मार
हर साल लाखों शिवभक्त गंगाजल लेने उत्तराखंड के हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री पहुंचते हैं और वहां से कांवड़ लेकर अपने-अपने शहरों तक पैदल सफर तय करते हैं। लेकिन अब सोशल मीडिया पर कांवड़ियों को ‘बेरोजगार’, ‘दंगाई’, ‘भोले के चोर’ जैसे तानों का सामना करना पड़ता है। कुछ वीडियो और घटनाओं के आधार पर पूरी यात्रा को विवादों में घसीटा जाता है।
कांवड़ियों की प्रतिक्रिया:
मेरठ से आए एक कांवड़िए सुमित शर्मा कहते हैं,
“हम पूरे साल मेहनत करते हैं, श्रावण में बस भोले बाबा की सेवा करने आते हैं। कुछ लोग वीडियो में दिखाए गए बर्ताव को पूरे समुदाय से जोड़ते हैं, जो गलत है।”
वहीं दिल्ली से आए एक अन्य कांवड़िए ने कहा,
“हमें ट्रैफिक रोकने, सड़क घेरने और शोर मचाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन हम खुद भी अनुशासन में रहने की कोशिश करते हैं। कुछ गलत लोगों की वजह से पूरी यात्रा को बदनाम करना उचित नहीं।”
प्रशासन की चुनौती:
हरिद्वार से लेकर दिल्ली तक पुलिस और प्रशासन के लिए कांवड़ यात्रा एक बड़ी लॉजिस्टिक और सुरक्षा चुनौती बन चुकी है। भारी भीड़, ट्रैफिक जाम, और सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो प्रशासन को सतर्क रखते हैं। इस बार भी 23 जुलाई तक कई रास्तों को बंद किया गया है और ट्रैफिक एडवाइजरी जारी की गई है।
आस्था बनाम अव्यवस्था: एक संतुलन की जरूरत
सामाजिक कार्यकर्ता और धर्मशास्त्री मानते हैं कि कांवड़ यात्रा की आध्यात्मिक महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन समय के साथ इसकी प्रस्तुति और पालन में अनुशासन की सख्त ज़रूरत है। भक्ति और व्यवस्था के बीच संतुलन ही इस यात्रा की गरिमा को बनाए रख सकता है।